रवीश कुमार का Prime Time: मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक यात्रा

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इस संबंध को भी समझना ज़रूरी है कि गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल से नेताजी का पार्थिव शरीर लखनऊ या दिल्ली के लिए रवाना नहीं हुआ, जहां उन्होंने दशकों विधायक और सांसद के रुप में डेरा जमाया. उस सैफई के लिए निकले, जो उनसे कभी छूटा ही नहीं. यूपी में गांव से निकल कर आए बहुत से नेता सत्ता शिखर पर पहुंचे लेकिन मुलायम सिंह यादव की सैफई की बात ही अलग थी. मुलायम सिंह यादव कभी सैफई को खुद से दूर नहीं कर सके. उनका गांव ही उनकी राजनीति का मुख्यालय बना रहा. वे सैफई होली दीवाली में नहीं आते थे बल्कि सैफई से दिल्ली लखनऊ जाया करते थे. उनके पार्थिव शरीर को लेकर यह काफिला सैफई ही जा रहा है. जहां अंतिम संस्कार किया जाएगा. 

मुलायम सिंह यादव उन नेताओं में से हैं जिन्होंने हर दौर में अपनी राजनीतिक स्वायत्ता और मिज़ाज को बचा कर रखा. तब भी जब वे सत्तर के दशक से कांग्रेस के वर्चस्व से लड़ने लगते हैं और तब भी जब कांग्रेस के साथ-साथ 90 के दशक से भाजपा के बन रहे वर्चस्व से लड़ने लग जाते हैं.बेशक पहलवान थे मगर राजनीति राजनीति की तरह की,विचारों और विचारधारा से की लेकिन जब राजनीतिक पत्रकारों को उनकी राजनीति समझ नहीं आई तो उसे दंगल और कुश्ती से जोड़ दिया और उनके राजनीतिक कौशल को कमतर करने की कोशिश की. वे दंगल से निकले राजनेता ज़रूर थे मगर उनकी राजनीति में केवल दंगल नहीं था. मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक जीवन ऐसा ही रहा है कि न तो तारीफों से भरा जा सकता है और न केवल आलोचनाओं से. मुलायम जिस पृष्ठभूमि से निकल कर आए थे, स्वाभाविक था कि उन्हें हर चीज़ के लिए लड़ना था. लड़ते लड़ते उनकी आदत लड़ाके की हो गई. 

आज सैफई एक विकसित गांव है. मुलायम के कारण जितना इटावा को मिला आज वही उम्मीद योगी के नेतृत्व में गोरखपुर को रहती है और मोदी के नेतृत्व में बनारस को लेकिन यूपी में राजधानी लखनऊ पहुंच कर अपने क्षेत्र को केंद्र में रखने की राजनीति ठीक से मुलायम सिंह यादव ने की. आलोचनाओं की परवाह किए बगैर सैफई और इटावा को तमाम सुविधाओं से भर दिया. अरशद अपने कैमरे से दिखा रहे हैं कि सैफई में मेडिकल कालेज तक बनवा दिया, इलाके यह मेन अस्पताल है. सैफई को मिले दुलार के कारण वीआईपी ज़िले का मुद्दा बना और विरोधियों ने उन्हें खूब घेरा.एक समय में सैफई की सड़कों से लखनऊ को ईर्ष्या हुआ करती थी. सैफई का फिल्म महोत्सव विवादित रहा, सत्ता की अय्याशी से जोड़ा गया, लेकिन वही मुलायम हैं जो बॉलीवुड के कलाकारों को अपने गांव में ले आए. राजनीति में जिस कुलीनता से लड़ते हुए मुलायम हमेशा दबंग के रूप में देखे गए, यह उनकी जीत का एक रुप है कि सारे फिल्मस्टार सैफई में पहुंच कर रात भर कार्यक्रम करते थे. यह नज़रिया भी उतना ही सही है कि प्रदेश की जनता ग़रीबी में डूबी है और सैफई में महोत्सव चल रहा है. एक हाथ से समाजवाद और एक हाथ से पैसावाद को साधते हुए मुलायम सिंह यादव ने यूपी की राजनीति को लंबे समय तक प्रभावित किया. सैफई महोत्सव मुलायम सिंह यादव की राजनीति का एक अहम मोड़ है, इस महोत्सव ने समाजवाद के पैसावादी हो जाने की छवि मज़बूत ही किया. इस गांव के दर्शन सिंह यादव उनके बचपन के दोस्त रहे और 45 साल तक सैफई गांव के प्रधान भी रहे. उनका एक इंटरव्यू पत्रिका अखबार में छपा है जिसमें वे बताते हैं कि गांव के ही सोने लाल शाक्य ने बैठक में सबके सामने कहा कि मुलायम सिंह यादव हमारे हैं. उनको चुनाव लड़ाने के लिए हम गांव वाले एक शाम खाना नहीं खाए. एक शाम खाना नहीं खाने से कोई मर नहीं जायेगा, पर एक दिन खाना छोड़ने से आठ दिनों तक मुलायम की गाड़ी चल जाएगी. जिस पर सभी गांव वालों ने एक जुट हो सोने लाल के प्रस्ताव का समर्थन किया और वही हुआ. सैफई ने एक शाम का खाना नहीं खाकर मुलायम का झंडा उठाया तो मुलायम आजीवन सैफई का झंडा थामे रहे. मुलायम सिंह यादव इटावा ज़िले के जिस सैफई में पैदा हुए उस वक्त उस गांव में प्रधान को छोड़ कर कोई शिक्षित नहीं था. करहल के जैन इंटर कालेज में मुलायम सिंह यादव ने पढ़ाया भी है. पोलिटिकल साइंस में एम ए थे. एक अध्यापक के रूप में लोकप्रिय हुए. शिक्षा को लेकर गांव-गांव में अभियान चलाने लगे. इस उत्साह से ये काम किया कि विधायक चुने जाने से पहले ही नेता जी कहलाने लगे.

यह तस्वीर जितेंद्र सिंह ने भेजी है. मुलायम सिंह यादव के रिश्तेदार यहां जुटे हैं. सैफई से पहले मुलायम सिंह यादव के परदादा इटोली गांव में रहा करते थे. इटोली गांव फिरोज़ाबाद में है. मुलायम सिंह के निधन की खबर आते ही गांव की महिलाएं शोक व्यक्त करने के लिए जमा होने लगी. इनमें सरोजा देवी हैं जो 90 साल की हैं और रिश्ते में मुलायम सिंह यादव की भाभी लगती हैं. 

अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत उन्होंने साइकिल से की, साइकिल से ही घूम घूम कर प्रचार किया.1992 में जब समाजवादी पार्टी का गठन किया तब उसका चुनाव चिन्ह भी साइकिल चुना. 60 के दशक में उनकी चर्चा राम मनोहर लोहिया तक पहुंची और उन्होने प्रदेश में समाजवादी विचारधारा के प्रसार के लिए मुलायम सिंह यादव पर भरोसा जताया. मुलायम सिंह की कोशिशों का ही नतीजा था कि यूपी में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय लोक दल, जनता पार्टी जनता दल से होते हुए उन्होंने समाजवादी पार्टी का गठन किया.उनकी राजनीति को जातिवादी सांचे में समेट दिया गया. जब उससे बात नहीं बनी तो उन्हें मुल्ला मुलायम तो कभी मौलाना मुलायम भी कहा गया. 

30 अक्‍टूबर और 2 नवंबर 1990 पर अयोध्या में कारसेवकों पर गोली कांड को लेकर निशाने पर आए. टाइम्स आफ इंडिया में उनका एक पुराना बयान छपा है कि देश की एकता के लिए गोली चलानी पड़ती तो सुरक्षा बल मारते. 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मोमले में अपने फैसले में कहा कि कोर्ट को भरोसा दिया गया था कि यथास्थिति बरकरार रहेगी लेकिन उस भरोसे को तोड़ कर मस्जिद का ध्वंस किया गया. बाबरी मस्जिद और इस्लामिक ढांचे का ढहाया जाना कानून के राज का हैरान करने वाला उल्लंघन था.जब मस्जिद तोड़ी गई तब बीजेपी की सरकार थी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे.कल्याण सिंह ने बीजेपी छोड़ दी और अपनी पार्टी बना ली.मुलायम सिंह यादव ने एक चुनाव में कल्याण सिंह की पार्टी से समझौता कर लिया तो काफी विवाद हुआ. यह समझौता लंबा नहीं चला और मुलायम सिंह यादव ने इसके लिए माफी भी मांगी की गलत तत्वों से समझौता हो गया, अब कभी बाबरी मस्जिद का ध्वंस करने वालों से राजनीतिक समझौता नहीं करेंगे. उधर कल्याण सिंह बीजेपी में आ गए और मोदी सरकार के समय राज्यपाल बनाए गए. राजनीति में मुलायम के कदम रखते ही यूपी की राजनीति उनके आस-पास घूमती रही और उन्हीं के सामने यूपी की राजनीति ने 2017 में अपनी धुरी बदल ली और मुख्यमंत्री योगी के आस-पास घूमने लगी.मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए सैफई जा रहे हैं.

आडवाणी की रथ यात्रा के समय मुलायम सिंह यादव की सरकार दबाव में थी. उन्होंने दंगों को रोकने के लिए पहली बार विशेष शांति दल का गठन किया. इसमें सात बटालियन बननी थी. एलान किया कि दंगों के लिए एस पी कलेक्टर ज़िम्मेदार माने जाएंगे और कई ज़िलों के कलेक्टर और एसपी को हटाया भी.सस्पेंड भी किया. अयोध्या में गोली कांड को लेकर बहुत कुछ कहा जाता है लेकिन सब कुछ नहीं कहा जाता. 

1997 में यह किताब राजकमल प्रकाशन से छपी थी. मुलायम सिंह यादव पर अभय कुमार दुबे ने लंबा परिचय लिखा है. इसमें अभय लिखते हैं कि मुलायम अजीब स्तिति से घिरे थे. एक तरफ हिंदूवादी सांप्रदायिक शक्तियां थी जो मुलायम सिंह के खून के प्यासी बनी हुई थीं दूसरी तरफ अपने ही प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह इन सांप्रदायिक शक्तियों के तुष्टिकरण के लिए उनकी जड़े खोदने की कोशिश कर रहे थे. जून 1990 में विश्व हिन्दू परिषद ने हरिद्वार में मुलायम हटाओ मंदिर बनाओ प्रस्ताव पास किया था. मुलायम को मुल्ला, मीर बाकी, गद्दार नास्तिक सब कुछ कहा गया. मुलायम सिंह यादव के माता पिता को गालियां दी गईं. अभय दुबे लिखते हैं कि विश्व नाथ प्रताप सिंह इन सब स्थितियों से अलग रहकर केवल बयानबाज़ी करते रहे. वी पी सिंह ने अनुच्छेद 256 के तहत उन राज्यों को चेतावनी नहीं दी जो अयोध्या में लाखों लोगों की भीड़ जुटा कर कानून व्यवस्था को खतरे में डाल रहे थे.

विश्वनाथ प्रताप सिंह के एक मंत्रीमंडलीय सचिव थे विनोद पांडे. इन्होंने 29 जुलाई 1990 को हिन्दुस्तान टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि अगर विश्वनाथ प्रताप सिंह 23 जुलाई तक प्रधानमंत्री बने रहे तो अगले 13 महीने तक कोई नहीं हटा सकता. विनोद पांडे ज्योतिष के तौर पर बोल रहे थे. अयोध्या में कार सेवकों पर जो गोली चली है उसकी परिस्थिति किस तरह से तैयार की गई, वह भी जानना चाहिए. क्या वीपी सिंह अपनी गद्दी बचाने के लिए मुलायम सिंह यादव और यूपी को दांव पर लगा रहे थे? 55 साल के राजनीतिक जीवन की समीक्षा आसान नहीं है. भारत के मीडिया पर सर्वण हितों का पोषक होने का आरोप यूं ही नहीं लगता है. इस मीडिया ने पिछड़े तबके से आने वाले नेताओं के राजनीतिक कौशल को कभी स्वीकार नहीं किया. इन दलों के ज़रिए गांव कस्बों की आवाज़ ऊपर पहुंची तो वहीं से अनगढ़ और अकुलीन नेता भी आगे आए. ज़ाहिर है उनका कार पर चलना भी भ्रष्टाचार था, और किसी राष्ट्रवादी दल के नेता का उद्योगपति के जहाज़ पर घूमना राष्ट्रवाद. कभी भी मीडिया इनके सामाजिक राजनीतिक योगदान को कभी स्वीकार नहीं किया जाता है. भारतीय राजनीति में अगर कांशीराम, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, मायावती जैसे नेता नहीं हुए होते तो आज कम संख्या वाली बहुत सारी ऐसी जातियों के नेताओं को कोई मंत्री भी नहीं बनाता. अभी भी वे उपमुख्यमंत्री तक ही पहुंचे हैं. 

गुप्त रुप से धन देकर राजनीतिक दल को कब्जे में करने वाले उद्योगपतियों के नाम आप नहीं जानते हैं मगर लोकतंत्र की सबसे बड़ी बुराई के रुप में परिवारवाद का पहाड़ा दिन रात रटाया जाता है. ताकि आपका ध्यान उन उद्योगपतियों पर न जाए, जिनकी नीतियों के लिए राजनीति चलती है

अक्‍टूबर 2016 में इस घटना ने हैरान कर दिया, जिस परिवार के दम पर मुलायम सिंह यादव ने राजनीति और राजनीतिक दल को थामे रखा, वह उन्हीं के सामने बिखर गया. शिवपाल सिंह यादव ने अखिलेश के हाथ से माइक छीन ली थी और कह दिया कि वे अलग पार्टी बनाने वाले हैं. बाद में शिवपाल सिंह यादव 2022 के चुनाव में अखिलेश के साथ आ गए मगर दोनों के रिश्ते कभी सामान्य नहीं हुुए. दोनों ही बार समाजवादी पार्टी यूपी में चुनाव हार गई. आज मुलायम सिंह यादव को श्रद्धांजलि देने के लिए गृहमंत्री अमित शाह भी पहुंचे(फोटो यूज़ करना है) लेकिन अमित शाह ने 2017 के चुनाव के बाद कोटा राजस्थान में एक किस्सा बताया कि कैसे बाप बेटे को लेकर एक अफवाह फैलाई गई और वो रणनीति काम कर गई. 

आज मुलायम सिंह यादव को कई समीक्षाओं में चतुर कहा जा रहा होगा मगर मुलायम सिंह यादव किस तरह सत्ता के जमे जमाए खिलाड़ियों की चतुराई के शिकार हुए, यह भी बताना चाहिए. मुलायम सिंह यादव अकेले समाजवादी नेता नहीं थे. उनकी पार्टी में जनेश्वर मिश्र का दर्जा छोटे लोहिया का था. आज़म ख़ान भी उसी बराबरी से दखल रखते थे. जया भादुड़ी भी सपा से सांसद रहीं और अमर सिंह भी कभी बहुत करीबी हो गए लेकिन 2014 के बाद हुए सत्ता परिवर्तन की आंधी में परिवर्तित हो गए.मुलायम ने खुद को पीछे कर बेनी प्रसाद वर्मा को यूपी विधानसभा में नेता विपक्ष बनवाया था. फूलन देवी को टिकट देना भी कम साहसिक फैसला नहीं था. हम सभी जानते हैं कि फूलन देवी की हत्या किन शक्तियों ने की. 

आज जब किसी शहीद का पार्थिव शरीर सीमा से उसके गांव आता है तो यह फैसला मुलायम सिंह यादव का था. उसके पहले सीमा से शहीद की टोपी आती थी. रक्षा मंत्री के रुप में मुलायम सिंह यादव का फैसला था कि कोई भी सैनिक शहीद होगा तो उसका पार्थिव शरीर सम्मान के साथ घर पहुंचाया जाएगा और ज़िलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक शहीद के साथ गांव जाएंगे. रक्षा मंत्री के रुप में उन्होंने सियाचिन के सैनिकों के लिए काफी कुछ किया. सुखोई विमान की डील उन्हीं के समय हुई जो आज वायु सेना की ताकत का मज़बूत आधार है. चीन उनका प्रिय भरोसा था. लोकसभा में चीन को लेकर हर सरकार को आगाह करते रहे हैं. UPA के दौर में भी चीन को लेकर अपनी राय से कभी पीछे नहीं हटे. मोदी सरकार के दौर में भी उनकी यह राय नही बदली और बहुत हद तक सही भी साबित हुई.इसके बाद भी क्षेत्रीय दलों के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सोच को प्रमुखता नहीं दी गई उन्हें हमेशा एक गांव या एक ज़िले का नेता बताया जाता है.

सितंबर 2014 में जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए थे तब भी मुलायम सिंह यादव ने उस यात्रा को संदेह के साथ देखा था और आगाह किया था. नवंबर 2014 के हिन्दू अखबार में मुलायम सिंह यादव का बयान छपा है. जिसमें वे कहते हैं कि केंद्र चीन पर भरोसा कर गलती कर रहा है. चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है. 6 अगस्त 2013 के दिन लोकसभा में मुलायम सिंह यादव का बयान है कि “आज हमारे देश को चीन और पाकिस्तान दोनों से खतरा है. चीनी सैनिक हमारी सीमाओं को पार करके 19 किलोमीटर तक अंदर आकर कैम्प लगाकर रह रहे हैं. वे वापस नहीं गए हैं, जिस तरह से वे आए थे, इससे लगता है कि वह  फिर हमला करेंगे. उन्होंने उसके लिए तरीका और रास्ता समझ लिया है बना लिया है इसीलिए वे लौट गए हैं. आज चीन से भी इतना बड़ा धोखा होगा, मैं सरकार को इस बारे में सावधान करना चाहता हूं.” 

अगला बयान 19 जुलाई 2017 का है. “मैं कितनी बार बोल चुका हूँ कि चीन हमारा दुश्मन है, पाकिस्तान नहीं है. पाकिस्तान हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता है.…… यदि वह हमारा एक शहर गिरा देगा, तो पाकिस्तान कुछ नहीं कर सकता है हमारे हिन्दुस्तान का. कमजोर पर गुस्सा आ रहा है, पाकिस्तान नहीं जीत सकता है हिन्दुस्तान से. पाकिस्तान को निशाना बना रहे हैं. पाकिस्तान को किसी तरह अपने पक्ष में लेने की कोशिश करना चाहिए था.……सबसे बड़ा विरोधी या दुश्मन है, तो वह चीन है. आज वह आपके सामने आ गया है.”

मैं दावा तो नहीं कर सकता कि सामरिक और कूटनीति पर लिखने वाले विद्वानों ने मुलायम और उनकी चीन नीति पर कभी लिखा नहीं होगा, लेकिन ऐसा कोई लेख मिले तो ज़रूर पढ़िएगा. मुलायम सिंह यादव खुल कर कहा करते थे कि भारत को दलाई लामा की मदद करनी चाहिए.डोकलाम में चीनी घुसपैठ के समय मुलायम सिंह यादव ने साफ साफ कहा था कि भारत को भी सिक्किम और भूटान की बात करनी चाहिए. समाजवादी पार्टी हमेशा क्षेत्रीय पार्टी गिनी जाती है या गिनवाई जाती है मगर उसके नेता के इन बयानों को कभी महत्व नहीं दिया जाता है. आज देश में बड़ी बड़ी कंपनियां खुदरा व्यापार में आ गई हैं. वालमार्ट नाम की अमरीकी कंपनी के आने पर उन्होंने जो कहा वो भी एक प्रमाण है कि क्षेत्रीय दलों के नेता राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी साफ समझ रखते थे. भले ही उनकी बातों को सुना नहीं जाता है. उनके भाषण का एक हिस्सा पढ़ रहा हूं जिसमें मुलायम सिंह यादव कहते हैं, “अमरीका में भी बेरोज़गारी है, यूरोप में भी बेरोज़गारी है और इससे बेरोज़ागारी इसलिए बढ़ेगी कि अभी जैसा मैंने कहा कि जो पाँच करोड़ लोग खुदरा व्यापार कर रहें हैं, वे इसके मुकाबले टिक नहीं पाएँगे. यह सही है कि वे कंपनियां जब आएंगी और यह जो कंपनी है “वॉलमार्ट “, यह पहले सस्ता और अच्छा माल देगी. जब यहाँ के पाँच करोड़ खुदरा व्यापारी खत्म हो जाएंगे तो वे अपनी मनमानी करेंगे.”

मुलायम सिंह यादव लगातार अपने सामाजिक राजनीतिक आधार में जोड़ घटाव करते रहे ताकि वे भाजपा और संघ से लड़ सके. 1995 में जब यूपी में मुलायम सिंह यादव की सरकार गिर गई तो बड़ी संख्या में अति पिछड़ी जाति के नेताओं को टिकट दिया और साठ के करीब सवर्णों को भी. उनकी पार्टी के ढांचे में दूसरी पार्टियां ज़्यादा दिखने लगीं. मायावती से पहले मुलायम सिंह यादव भी रायबरेली में ब्राह्मण सम्मेलन कर चुके थे.इलाहाबाद में कायस्थ सम्मेलन में हिस्सा लिया तब भी मुलायम जातिवादी होने की छवि से पीछा नहीं छुड़ा सके क्योंकि छवियां कहीं और से बनाई जाती हैं. 1991 में इटावा से कांशीराम को लोकसभा का चुनाव जीताने में जी जान लगा दी. यूपी की राजनीति में वह बड़ी घटना थी. इसके बाद बीजेपी की सरकार सपा कार्यकर्ताओं के खिलाफ आक्रामक हो गई. बड़ी  संख्या में सपा कार्यकर्ताओं पर गुंडा एक्ट लग गया. पार्टी की एक छवि यह भी बना दी गई. मुलायम और मायावती के साथ आने का यह प्रयोग भी 1995 के गेस्ट हाउस कांड के कारण ध्वस्त हो गया. 

जिस तरह से किसी ने नहीं सोचा था कि कल्याण सिंह और मुलायम सिंह यादव गठबंधन कर सकते हैं उसी तरह से किसी ने नहीं सोचा था कि मुलायम सिंह यादव और मायावती एक मंच पर आ सकते हैं. यह गठबंधन जनता ने स्वीकार नहीं किया लेकिन यह एक राजनीतिक परिवर्तन तो था ही, भले ही कम समय के लिए था.1999 में मुलायम सिंह यादव के पास 32 सांसद थे. उन्होंने सोनिया गांधी को समर्थन देने से मना कर दिया था. राजनीति का यह किस्सा भी कम रोचक नहीं है. कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी मुलायम सिंह यादव के निधन पर गहरा शोक जताया है.प्रियंका गांधी ने भी शोक जताया है और  राहुल गांधी ने पदयात्रा के बीच में मुलायम सिंह यादव को श्रद्धांजलि दी है. 

मुलायम सिंह यादव भले ही तीन बार मुख्यमंत्री रहे मगर कभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया. जसवंत नगर विधानसभा क्षेत्र ने पहली बार मुलायम सिंह यादव को चुना होगा तो उस पीढ़ी को कुछ तो भरोसा होगा कि नेता जी आगे जाएंगे. मुलायम सिंह की राजनीति की नकल भी हुई, उसकी प्रतिक्रिया में दूसरी राजनीति भी पनपी. 

मुलायम सिंह ने कभी किसी पर पूर्णतः विश्वास नहीं किया, ना ही सदैव की दुश्मनी निभाई. जीवन भर चंद्रशेखर को अपना नेता बताया लेकिन पीएम बनाने के समय आया तो देवीलाल के साथ मिलकर वीपी सिंह को समर्थन दे दिया. लेफ़्ट को हमेशा अपना करीबी दोस्त बताया, लेकिन राष्ट्रपति के चुनाव के समय लेफ़्ट के उम्मीदवार कैप्टन सहगल को छोड़कर एनडीए के उम्मीदवार कलाम को समर्थन दिया. चूँकि लेफ़्ट के करीबी थे, इसलिए परमाणु समझौते में मुलायम शायद UPA को समर्थन ना देते. अमर सिंह ने बाद में परमाणु समझौते पर मुलायम से समर्थन दिलवाया था. कांशीराम से शायद उतना समर्थन नहीं मिला और उनसे मुलायम का दिल नहीं मिला. गेस्ट हाउस के बाद कभी मायावती-मुलायम के बीच विश्वास नहीं बन सका. हालाँकि साझा सरकार भी चलाई, कई बार जुड़ने की कोशिश भी हुई, हाल ही में अखिलेश के साथ भी. मगर कभी रिश्ता ठीक नहीं हुआ. 

अभय कुमार दुबे ने अपनी किताब में लिखा है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री थे. तब आडवाणी की रथयात्रा निकल चुकी थी. मुलायम सिंह यादव ने आरोप लगाया कि केंद्र की सरकार उनकी मदद नहीं कर रही है. राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में केवल राजीव गांधी और ज्योति बसु ने उनका साथ दिया.उसी सिलसिले में मुलायम सिंह यादव पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कार में बैठ गए और दोनों की काफी लंबी बात हुई. इसी पर अभय कुमार दुबे ने लिखा है कि इसके बाद उनके भीतर गैर कांग्रेसवाद को लेकर जो झिझक आई थी वह टूट गई. राजीव गांधी पर मंदिर परिसर का ताला खुलवाने का आरोप था मगर यहां राजीव भाजपा के खिलाफ मुलायम के साथ खड़े हो गए.जब देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री के लिए चुना गया उसके दो दिन पहले सीपीएम नेता हरकिशन सिंह सुरजीत प्रधानमंत्री पद के लिए मुलायम सिंह यादव के नाम पर विचार कर रहे थे. बाद में कांग्रेस की मदद से यूपी में मुलायम सिंह यादव ने अपनी सरकार भी बचाई 

मुलायम सिंह यादव के साथ भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी प्रस्थान करता है. यह एक लंबी यात्रा का समापन है. नेता जी अब यूपी की राजनीति में नहीं है मगर उनकी राजनीति के कारण बहुत से लोग नेता बनकर अलग अलग दलों में फल-फूल रहे हैं.

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