Explainer: शांति का प्रतीक और संदेश वाहक, लेकिन बीमारियां भी फैलाता है कबूतर

अगर आप कबूतर की बीट के संक्रमण में आएं तो अपने हाथ ज़रूर धोएं,या उसके संपर्क में आई हर चीज़ को साफ़ करें, ख़ास तौर पर खाने-पीने से पहले. अगर आपकी इम्यूनिटी कम है तो कबूतर की बीट से दूर रहना बेहतर है. 

हजारों साल पहले पालतू बने कबूतर

हालांकि यह बताना भी बहुत ज़रूरी है कि हम कबूतर को विलेन न बना दें. ये भी कुदरत का एक अहम हिस्सा हैं. फ़र्क़ बस यह है कि हमने बीते सैकड़ों साल में इसके रहने खाने के कुदरती तरीके के साथ गंभीर छेड़छाड़ कर दी है. इन कबूतरों को अगर हम दाना नहीं खिलाएंगे तो भी वे अपने लिए खाना ढूंढ ही लेंगे. जो स्लेटी रंग के कबूतर आप देखते हैं ये दरअसल Feral Pigeon हैं, यानी ऐसे कबूतर जो हज़ारों साल पहले पालतू बनाए गए थे और उनकी कुछ शाखाएं फिर से जंगली बन गईं. 

कबूतर उन पंछियों में से हैं जो बहुत तेज़ी से प्रजनन करता है. उसकी आबादी तेज़ी से बढ़ती है. वो साल में छह बार दो-दो अंडे दे सकते हैं. यानी एक साल में कबूतरों का एक जोड़ा बारह नए कबूतरों को जन्म देता है.कबूतर के बच्चे 30 से 37 दिन में घोंसला छोड़ देते हैं और फिर वे भी प्रजनन लायक हो जाते हैं. अगर इसे भी गिनती में शामिल करें तो एक जोड़े से साल भर में 45 कबूतर हो जाते हैं. 

ऐसी तमाम वजहों से कबूतरों को फ्लाइंग रैट्स कहा जाता है. चूहों की तरह उनकी आबादी तेज़ी से बढ़ती है. चूहों की तरह ही वे कई बीमारियां भी फैलाते हैं. और उन्हीं की तरह तेज़ी से बदलती परिस्थितियों और शहरी इलाकों के अभ्यस्त हो जाते हैं. सन 1960 में कबूतरों को मेनिंजाइटिस के लिए ज़िम्मेदार मानते हुए तब के न्यूयॉर्क सिटी पार्क्स कमिश्नर ने कबूतरों को rats with wings कह दिया था. लेकिन ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि अगर हम कबूतरों को दाना खिलाना छोड़ दें तो हो सकता है कि उनकी आबादी बढ़ने की रफ़्तार कुछ कम हो जाए. वो हमारे लिए परेशानी का ऐसा सबब न बनें. 

पूरी उम्र के लिए बनता है कबूतर का जोड़ा

कबूतर बेचारे बैड मीडिया कवरेज के भी शिकार हुए हैं, वर्ना उनमें कई अच्छी बातें भी रही हैं. जैसे कबूतरों का जोड़ा बनता है तो उम्र भर के लिए. कबूतरों की एक सबसे ख़ास बात ये है कि वो जहां रहते हैं वहां से उन्हें अगर कहीं दूर छोड़कर भी आ जाएं तो भी वो फिर वहीं लौटकर आ जाते हैं. उनकी यही खूबी उन्हें हज़ारों साल से संदेशवाहक के तौर पर इस्तेमाल करने के काम भी आई. वे ऐसा कैसे कर पाते हैं इससे जुड़ी कई रिसर्च होती रही हैं. जैसे कुछ रिसर्च के मुताबिक वे धरती के मैग्नेटिक फील्ड के सहारे सफ़र तय करते हैं.इसके अलावा गंध और आवाज़ के सहारे भी वे वापस अपने घर लौट सकते हैं. कुछ रिसर्च ये भी कहती हैं कि सूरज की पोज़ीशन के आधार पर वो अपने रास्ते का अंदाज़ लगाते हैं. जो भी हो टेलीग्राम आने से पहले कबूतर ही संदेश पहुंचाने का सबसे कारगर और तेज़ सहारा रहा है.  

हमारे आसपास उड़ने वाले ये आम कबूतर यानी Rock Pigeon मूल रूप से उत्तर अफ्रीका, दक्षिणी यूरोप और दक्षिण पश्चिम एशिया के थे.जंगलों में वे ऊंची चट्टानों पर रहते और घोंसले बनाते आए थे. उनकी खूबियों के कारण धीरे धीरे उन्हें पालतू बनाकर दुनिया के दूसरे देशों में ले जाया जाता रहा. सन 1606 में यूरोपीय प्रवासी उन्हें अपने साथ उत्तरी अमेरिका भी ले गए, जहां ये शहरी रॉक Pigeon के तौर पर विकसित होते चले गए. आज अमेरिका के तमाम शहरों की स्काईलाइन का ये हिस्सा हो चुके हैं.

भारत की बात करें तो एक दौर में कबूतरों को पालना नवाबी शौक सा हो गया था. पुरानी दिल्ली से लेकर लखनऊ और भोपाल तक कबूतरों के शौकीन लोग उन्हें पालते थे, अपनी छतों से आसमान में उड़ाने का लुत्फ़ लिया करते थे. यहां तक कि दूसरे की छत से उड़े कबूतरों को अपने कबूतरों के ज़रिए अपने पास लाने की कोशिश किया करते थे. इसे कबूतरबाज़ी कहा गया. इसीलिए बाद में ये शब्द अवैध तौर पर सीमा पार कर लोगों को दूसरे देशों में भेजने के लिए भी इस्तेमाल किया जाने लगा. इसी कबूतरबाज़ी के आरोप में एक जाने माने गायक दलेर मेहंदी को सज़ा भी सुनाई गई थी. 

कबूतर पालन के 5000 साल पहले के प्रमाण 

जानकार मानते हैं कि कबूतर उन शुरूआती पंछियों में रहा जिन्हें इंसान ने पालतू बनाया, क्योंकि उसे प्रशिक्षित करना आसान रहा. वे बहुत जल्द इंसानों के अभ्यस्त और विश्वस्त बन गए. 

जंगली कबूतरों को पालतू बनाने के प्रमाण करीब 5000 साल तक पुराने मिलते हैं. मेसोपोटामिया और मिस्र जैसी ऐतिहासिक सभ्यताओं से जुड़े प्रमाण बताते हैं कि कबूतर उनके जीवन का हिस्सा रहा. उसे खाने के काम भी लाया गया, उड़ाने के काम में भी. ईसा से 3000 साल पहले मेसोपोटामिया की सभ्यता से जुड़ी clay tablets और मिस्र के hieroglyphics में भी कबूतरों को पालने का ज़िक्र मिलता है. प्राचीन मिस्र के लोग नए फ़राओ के उदय पर कबूतरों को उड़ाया करते थे. पर्शिया, इज़रायल, चीन और कई अन्य संस्कृतियों में कबूतर ख़ास रहा. उसे खाने के लिए पाला गया, धार्मिक अनुष्ठानों के लिए इस्तेमाल किया गया, खेल में उसका इस्तेमाल हुआ और सबसे ख़ास इस्तेमाल हुआ मैसेंजर यानी डाकिए के तौर पर चिट्ठियां लाने ले जाने के लिए. कबूतरों को ही ग्रीक देवी एफ़्रोडाइट और रोमन देवी वीनस के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा. मध्यकालीन यूरोप में उन्हें लेकर ये अंधविश्वास तक रहा कि शैतान और चुड़ैल अपने आप को किसी भी पक्षी में बदल सकते हैं लेकिन कबूतरों के तौर पर नहीं बदल सकते. इसे कबूतरों की पवित्रता के तौर पर देखा गया. 

चीन में ऐतिहासिक तौर पर कबूतर को वफ़ादारी और लंबी उम्र का प्रतीक माना गया. प्रेम, मातृत्व और प्रजनन से भी उसे जोड़ा जाता रहा है. कबूतरों को शांति का प्रतीक भी माना गया. आज भी शांति के प्रतीक के तौर पर उन्हें उड़ाने का चलन बना हुआ है. लेकिन रंगों को लेकर शायद ये हमारे भीतर बसा एक पक्षपात ही है कि शांति के प्रतीक के तौर पर हमेशा सफ़ेद कबूतर उड़ाए गए, स्लेटी कबूतर नहीं. जिन्हें शांति के प्रतीक के तौर पर उड़ाया जाता है उन्हें dove या फ़ाख़्ता कहा जाता है जो आकार में थोड़े छोटे होते हैं, हालांकि हैं वो कबूतर फैमिली के ही. 

कबूतर की चोंच में जैतून की पत्तियां यानी शांति का संदेश 

कबूतरों की चोंच में Olive यानी जैतून की पत्तियों को भी शांति के संदेश के तौर पर दिखाया जाता है. कुछ ऐसा ही ज़िक्र बाइबल में है, जहां भगवान ने धरती पर फैले पाप और भ्रष्ट आचरण से नाराज़ होकर कहा कि वो जल प्रलय से सब मनुष्यों को ख़त्म कर देंगे. लेकिन धरती पर एकमात्र नेकदिल और पवित्र व्यक्ति नोहा को जल प्रलय को लेकर सतर्क कर दिया और कहा कि वो अपने परिवार और हर जानवर के एक जोड़े को नाव पर ले आए. 40 दिन, 40 रात धरती पर जल प्रलय रहा. इस जल प्रलय के बीच नोहा ने एक कबूतर को नाव से उड़ाकर ज़मीन ढूंढने भेजा. पहला कबूतर ऐसे ही लौट आया लेकिन दूसरा कबूतर अपनी चोंच में जैतून की पत्तियां लेकर आया जिससे पता लगा कि ज़मीन आसपास ही है. कहते हैं कि इस आधार पर भी कबूतर को शुभ माना जाने लगा. 

जैविक विकास की प्रक्रिया का सिद्धांत देने वाले मशहूर प्रकृतिवादी और जीव विज्ञानी चार्ल्स डार्विन ने अपनी theory of evolution by natural selection यानी प्राकृतिक चयन का सिद्धांत तैयार करने में कबूतरों का भी अध्ययन किया और इसके आधार पर उन्हें विकासवाद का सिद्धांत तैयार करने में मदद मिली.

वैसे कबूतरों की बात करते हैं तो आमतौर पर हमारे दिमाग़ में स्लेटी रंग के या सफेद कबूतरों की ही तस्वीर बनती है, किसी हरे पीले कबूतर की नहीं. हम तोते की बात नहीं कर रहे एक कबूतर की ही बात कर रहे हैं जो देश की राजधानी दिल्ली का ही बाशिंदा है. इसे हरियल भी कहते हैं, Yellow-footed Green-Pigeon स्लेटी कबूतर का शर्मीला रिश्तेदार है जो पेड़ों ख़ास तौर पर पीपल और बरगद की टहनियों पर पत्तों के बीच अपने रंग के कारण छुपा सा रहता है, ज़मीन पर बहुत ही कम उतरता है और सुबह के वक़्त ज़्यादा दिखाई देता है. दिल्ली के पुराने लोग इसे ज़रूर पहचानते होंगे. यह ख़ूबसूरत परिंदा है. वैसे दुनिया में कबूतरों की 352 प्रजातियां अभी तक पाई गई हैं. 

टेलीग्राम से पहले कबूतर ही था सबसे तेज संदेश वाहक

टेलीग्राम के आने से पहले तक कबूतर संदेश पहुंचाने का सबसे तेज़ माध्यम रहा. कबूतर ने प्रेम, सौहार्द और मित्रता के संदेश भी भेजे तो युद्ध के भी. उदाहरण के लिए पहले और दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिकी सेना की सिग्नल कोर ने संदेश भेजने के लिए कबूतरों का इस्तेमाल किया, जिससे कई जानें भी बचीं और कई अहम रणनीतिक जानकारियां भी पहुंचाई गईं. अमेरिका की आर्मी सिग्नल कोर में शामिल ऐसा ही एक कबूतर Cher Ami आज भी याद किया जाता है. Cher Ami फ्रेंच शब्द है जिसका अर्थ है प्रिय मित्र. ऐसे समय जब पहले विश्व युद्ध में जर्मन फौज ने संदेश पहुंचाने वाले हर कबूतर को मार गिराया तो गरजती तोपों और बंदूकों के बीच कबूतर Cher Ami ने 12 मिशनों को कामयाबी से अंजाम दिया. उसके सबसे ख़तरनाक मिशन ने अमेरिकी सेना की 77वीं डिवीज़न जिसे Lost Battalion कहा गया को बचा लिया.  

कबूतर ने बचाई थी अमेरिका की एक बटालियन 

जंगल के बीच दुश्मन जर्मन फौज से घिरी यह बटालियन अमेरिकी सेना को अपनी पोज़ीशन नहीं बता पा रही थी. यहां तक कि अपनी अमेरिकी सेना के बम भी उस पर गिरने लगे. ऐसे में इस बटालियन के एक अफ़सर ने बचे हुए एकमात्र कबूतर Cher Ami के पैर में संदेश बांधकर भेजा और अपनी पोज़ीशन बताई. गोलियों और तोपों की गरज के बीच आधे घंटे में 25 मील की दूरी तय कर ये कबूतर अमेरिकी सेना के बेस तक पहुंच गया. तभी एक गोली लगने से वो भी नीचे गिर  गया. नीचे गिरा तो उसके पैर में बंधे संदेश के कारण 194 अमेरिकी सैनिकों की जान बच गई. तब युद्ध भूमि में इस कबूतर की बहादुरी के लिए उसे सम्मानित किया गया. घायल कबूतर को अमेरिका ले जाया गया जहां घाव के कारण उसकी मौत हो गई. उसके शरीर को संरक्षित किया गया और सम्मान के साथ Smithsonian Institution को सौंप दिया गया. Smithsonian’s National Museum of American History में आज भी उसे पूरे सम्मान के साथ रखा गया है.


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