निर्वस्त्रता को अपना अस्त्र घोषित करतीं ईरानी महिलाएं

क्या हिंदुस्तान में किसी महिला के नाखून काटने पर या बाल काटने पर यहां के समाज और सत्ता को डर लग सकता है? निश्चय ही यह सवाल ही मजाकिया लगता है! यहां ऐसी घटनाएं खबरों में आकर गायब हो जाएंगी, लोग इन बातों को हंसी-मजाक में उड़ा देंगे. नाख़ून काटने और बाल काटने में कोई अंतर नहीं. दोनों ही शरीर के अतिरिक्त हिस्से हैं जिसकी कटाई छंटाई अपने मनमुताबिक की जाती है. लेकिन यह मजाकिया लगने वाली बातें भी बड़े विद्रोह का माध्यम बन सकती है. अगर महिलाएं बाल काटकर प्रतिरोध कर रही हैं तो इससे समझा जा सकता है कि मजहबी कानूनों से संचालित देशों में इक्कीसवीं सदी में महिलाओं की हैसियत क्या है! दासता जितनी मजबूत होती है, प्रतिरोध के तरीके उतने छोटे और मजाकिया लगते हैं. ईरान की महिलाओं का विद्रोह उसकी दासता की चरम स्थिति को बताता है, इसलिए वहां महिलाओं के विरोध के तरीके भी ऐसे ही हैं. 

वर्ष 2022 के महसा अमीनी के बाल काटने की घटना से फैला आन्दोलन अब और भी मुखर होता जा रहा है जिसे कुछ ही दिन पहले तेहरान के आजाद विश्विद्यालय की एक छात्रा अहू दरियाई द्वारा विश्विद्यालय में कपड़े उतारकर विरोध प्रदर्शन से समझा जा सकता है. हालांकि वहां की सत्ता ने उसे मानसिक रूप से बीमार घोषित करने का प्रयास किया है, लेकिन इसे सारी दुनिया समझ सकती है कि मानसिक रूप से बीमार किसे माना जाना चाहिए! यह ईरानी समाज में महिलाओं के भीतर वहां की सत्ता के विरुद्ध तेजी से फैलते विद्रोह को दर्शाता है, यह धीरे-धीरे लगातार सुलग रहा है. 

अफगानिस्तान, ईरान, सऊदी अरब सहित कई मजहबी कानूनों से प्रेरित देशों में साफ़ साफ़ दिखता है कि कैसे महिलाएं वहां सत्ता की वर्चस्वकारी योजनाओं की पहली प्राथमिकता में है. तालिबान भी जब सत्ता में आया तो सबसे पहले उसने वहां की महिलाओं को ही नैतिकता और संस्कारों में बांधा. मुझे याद है कि तालिबान के सत्ता में आने के बाद मेरी एक अफ़ग़ानिस्तानी छात्रा ने मुझसे अपनी पीड़ा को बयां करते हुए कहा कि अब उसका भारत में आकर अपनी पढ़ाई को जारी रखना असंभव हो गया है, और साथ ही उसके अपने देश में भी उस पर रातों-रात अनेक अमानवीय पाबंदिया लगा दी गई. वह एक बेहतरीन छात्रा थी, उसमें असीमित संभावनाएं थीं. सवाल है कि आखिर मजहबी कानूनों से चलने वाले देश सबसे पहले अपने यहां महिलाओं को ही क्यों नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं? इसके कुछ जुड़े हुए कारण हैं- पहला कि सभी स्थापित मजहब पुरुष केन्द्रित हैं और ये महिलाओं की दासता पर ही बने हुए हैं, दूसरा कि मजहबी समाज में महिलाएं चूंकि एक वस्तु की तरह मानी जाती है जिस पर नियंत्रण किया जाना अनिवार्य है, इसलिए उनके शरीर और मन पर कब्ज़ा के लिए शारीरिक ताकत से बेहतर मजहबी आधारों का सहारा लेना ज्यादा आसान होता है, क्योंकि इसमें महिलाओं द्वारा प्रतिरोध की सम्भावना कम रहती है. और चूंकि मजहबी सत्ता मर्दवादी अवधारणों से और उनके हितों के लिए ही चलती है, इसलिए उसके लिए जरूरी है कि वह महिलाओं को अधीनता में रखने का पूरा प्रयास करें- ईरान की मजहबी सत्ता वही कर रही है. 

दुनिया के सभी स्थापित मजहबों का अस्तित्व महिलाओं की दासता के बिना नहीं रह सकता. उसे किसी न किसी रूप में पारलौकिक सत्ता को खुश करने के लिए महिलाओं की जरूरत होगी ही होगी. इनमें महिलाओं की भूमिका आमतौर पर निष्क्रिय रही है या फिर मर्दों के हितों को पूरा करने वाली. अगर ध्यान से देखें तो यह साफ नजर आता है कि महिलाओं के बिना किसी मजहब का अस्तित्व नहीं, लेकिन साथ ही इन मजहबों में महिलाओं का कोई मानवीय और सम्मानपूर्ण अस्तित्व कम दिखाई देता है. इसलिए बहुत सी नारीवादियों का मानना रहा है कि महिलाओं का कोई मजहब नहीं होता. किसी भी मजहब का मानवीय पक्ष कितना विशाल और व्यापक है यह समझना है तो अनिवार्य तौर पर यह देखा जाना चाहिए कि महिलाओं की उस मजहब में स्थिति क्या है. सभी स्थापित मजहब उस कसौटी पर कम या अधिक अन्यायपूर्ण ही साबित होंगे.  

चूंकि मर्दवादी दुनिया में महिलाओं के मन और शरीर का उपभोग किया जाना है इसलिए मजहब वह सबसे बेहतरीन तरीका है कि कैसे उन पर अपना वर्चस्व कायम रखा जाए. अगर इटालियन चिन्तक अंतनियो ग्राम्स्ची के शब्दों में कहें तो यह कंसेंट हेजेमनी है. और इसमें कंसेंट भी मर्दों द्वारा उत्पादित है न कि यह स्वतः स्फूर्त. लेकिन हालिया लगातार होते विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए लगता है कि ईरान में यह कंसेंट हेजेमनी का खेल अब महिलाओं ने समझना शुरू कर दिया है, और इसलिए वे अपने मन और शरीर को मर्दवादी सभ्यता की गिरफ्त से निकालने का प्रयास कर रही हैं. इसके ठीक विपरीत भारत में अगर मुस्लिम महिलाओं के सन्दर्भ में देखें तो लगता है कि इन्होंने मर्दवादी सभ्यता को दासता की अनुमति दे रखी है, जैसा कि हमने अनगिनत मामलों में देखा कि कैसे यहां की मुस्लिम महिलाओं ने बुरका के समर्थन में जोरदार विरोध प्रदर्शन किया. दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से इन्होंने अपने चेहरे को ढंके जाने का समर्थन स्वयं किया. 

आदमी एक सामाजिक जीव है. इसका अस्तित्व ही सामाजिक-अंतर्क्रिया से है. ऐसे पहनावे जो मनुष्य के चेहरे और भाव-भंगिमाओं को ढंक दें तो वह कैसे अपनी समाजिक उपस्थिति दर्ज कर सकता है! बुरका या इसी तरह के पहनावे सामाजिक-अंतर्क्रिया में एक बाधक की तरह है जो महिलाओं को सामाजिक और राजनीतिक रूप से निष्क्रिय करती है. स्थापित मजहबों ने महिलाओं को ऐसे ही तरीकों से अपने नियंत्रण में रखने का प्रयास किया है. ईरान मूलतः अपनी सत्ता के द्वारा महिलाओं के सामाजिक और राजनीतिक हितों को लगातार कुंद करता आ रहा है. महिलाओं को सामाजिक और राजनीतिक रूप से निष्क्रिय करने का सत्ता का यह षड्यंत्र महिलाओं के नरसंहार की तरह है.   

चूँकि सत्ता निर्माण के समय यह वादा था कि मजहब को सुरक्षित रखा जाएगा, और इसलिए इन वादों को पूरा करने के लिए और सत्ता को बनाए रखने के लिए ईरानी सत्ता महिलाओं के अस्तित्व को कब्जाने के लिए सारे क्रूर प्रयास कर रही है. अब तक सैकड़ों महिलाओं को मारा जा चुका है, और न जाने कितने को मानसिक रूप से बीमार घोषित किया गया! यह आन्दोलन वर्तमान समय में महिलाओं द्वारा सबसे बड़े प्रतिरोध के रूप में देखा जाना चाहिए. और खासकर तब जब महिलाएं निर्वस्त्रता को अपना अस्त्र घोषित कर चुकी हों. 
(नोट: यह लेख स्त्री अधिकारों को अपने जीवन में उतारने वाले अधिवक्ता श्री देवेन्द्र कुमार मिश्रा के प्रति एक छोटी सी श्रद्धांजलि है.)

केयूर पाठक हैदराबाद के CSD से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं… अकादमिक लेखन में इनके अनेक शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नलों में प्रकाशित हुए हैं… इनका अकादमिक अनुवादक का भी अनुभव रहा है…

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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